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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / दशम सर्ग / पृष्ठ - ३

अमरावती
(5)

मणि-जटित स्वर्ण के मंदिर।
विधिक को मोहे लेते हैं।
विधु को हैं कान्त बनाते।
दिव को आभा देते हैं॥1॥

हैं कनकाचल-से उन्नत।
परमोज्ज्वल त्रिकभुवन-सुन्दर।
हैं विविध विभूति-विभूषित।
दिव्यता-मूर्ति लोकोत्तर॥2॥

उनके कल कलश अनेकों।
हैं दिनमणि से द्युतिवाले।
आलोक-पुंज पादप के।
हैं विपुल विभामय थाले॥3॥

चामीकर-दण्ड-विमण्डित।
उड़त उतुंग धवजाएँ।
हैं कीत्तिक उक्ति-कान्ता की।
बहु लोलभूत रसनाएँ॥4॥

सब हैं समान ही ऊँचे।
हैं एक पंक्ति में सा।
नवज्योति-लाभ करते हैं।
अवलोके लोचन-ता॥5॥

वे सब हैं स्वयंप्रकाशित।
हैं स्वयं स्वच्छता-साधन।
देखे उनकी पावनता।
पावन हो जाते हैं मन॥6॥

हैं लगे यंत्र वे उनमें।
जो हैं बहु काम बनाते।
या मधुर स्वरों से गा-गा।
श्रुति को हैं सुधा पिलाते॥7॥

मंजुल मणियों के गहने।
पहने मौक्तिक-मालाएँ।
देवतों सहित लसती हैं।
उनमें दिव की बालाएँ॥8॥

चाँदी-विरचित सब सड़कें।
हैं चारों ओर चमकती।
चाँदनी-चारुता में थी।
दामिनी समान दमकती॥9॥

है हाट हाटकालंकृत।
है विपणि रत्नचय-भरिता।
जिसमें बहती रहती है।
पावन प्रमोदमय सरिता॥10॥

था कहीं नहीं मैलापन।
थी नहीं मलिनता मिलती।
सब समय स्वच्छता सित हो।
थी वहाँ सिता-सी खिलती॥11॥

बन सुधा-धावल रह निर्मल।
हैं सकल सदन छवि पाते।
होकर भी परम पुरातन।
नूतनतम थे दिखलाते॥12॥

थे दिव्य दिव्य से भी दिन।
थी विभावरी दिवसोपम।
दिव में प्रवेश-साहस कर।
तम बनता था उज्ज्वलतम॥13॥

तज प्रचंडता बन संयत।
मृदु स्वर भर-भर कुछ कहता।
चल मंद-मंद हो सुरभित।
शीतल समीर है बहता॥14॥

सित भानु भानु की किरणें।
हैं यथासमय आ जाती।
मिल कान्त तारकावलि से।
हैं दिव्य दृश्य दिखलाती॥15॥

घन किसी समय जो घिरता।
तो सरस सुधा बरसाता।
मुक्ता करके ओलों को।
पद अलौकिकों का पाता॥16॥

जब मंद-मंद रव करके।
अति मधुर मृदंग बजाता।
तब केलिमयी चपला का।
नर्त्तन था समाँ दिखाता॥17॥

घन-अंक त्याग, आ नीचे।
है मणिमाला बन जाती।
या बिजली दिव-सदनों में।
मंजुल झालरें लगाती॥18॥

थी प्रकृति परम अनुकूला।
प्रतिकूल नहीं होती थी।
पवि को प्रसून थी करती।
हिम से रचती मोती थी॥19॥

सब ओर स्फूत्तिक थी फैली।
थी मोद-मग्नता लसती।
बहती विनोद-धारा थी।
थी उत्फुल्लता विहँसती॥20॥