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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / नवम सर्ग / पृष्ठ - २

भंग करके सद्भाव समेत।
मनुजता का अनुपम-तम अंग।
नर-रुधिकर से रहता है सिक्त।
सुरंजित राजतिलक का रंग॥5॥

बना बहु प्रान्तों को मरुभूमि।
विविध सुख-सदनों का बन काल।
जनपदों का करता है धवंस।
राजभय प्रबल भूत-भूचाल॥6॥

लोक में भरती हैं आतंक।
लालसाओं की लहरें लोल।
भग्न करते हैं भवहित-पोत।
राज्य-अधिकार-उदधिक-कल्लोल॥7॥

गर्व-गोलों से कर पवि-पात।
अरि-अनी का करती है लोप।
कँपाती है महि को कर नाद।
राज्य-विस्तार-वृत्तिक की तोप॥8॥

(4)
सेमल की सदोषता

पाकर लाल कुसुम सेमल-तरु रखता है मुँह की लाली।
रहती है सब काल लोक-अनुरंजन-रत उसकी डाली।
नभतल नील वितान-तले जब उसके सुमन विलसते हैं।
तब कितने ही ललक-निकेतन जन-नयनों में बसते हैं॥1॥

मंद-मंद चल मलय-मरुत जब केलि-निरत दिखलाता है।
तब लालिमा-लसित कुसुमों का कान्त केतु फहराता है।
लोहित-वसना उषा विलस जब उसे अंक में लेती है।
सरस प्रकृति जब द्रवीभूत हो मुक्तावलि दे देती है॥2॥

तब वह फूला नहीं समाता, आरंजित बन जाता है।
सहृदय जन के मधुर हृदय में रस का स्रोत बहाता है।
हरित नवल दल उसके कुसुमों में जब शोभा पाते हैं।
जब उसपर पड़ दिनकर के कर कनक-कान्ति फैलाते हैं॥3॥

जब कोकिल को ले स्वअंक में वह काकली सुनाता है।
जब उस पर बैठा विहंग-कुल मीठे स्वर से गाता है।
तब वह किसको नहीं रिझाता, किसको नहीं लुभाता है।
किसको नहीं स्वरित हो-होकर विपुल विमुग्ध बनाता है॥4॥

अति चमकीली चारु मक्खियाँ तथा तितलियाँ छविवाली।
रंग-बिरंगे सुन्दुर-सुन्दर बहु पतंग शोभाशाली।
जब प्रसून का रस पी उड़-उड़ मंजु भाँवरें भरते हैं।
तब क्या नहीं मुग्धकारी निधिक उसको वितरण करते हैं॥5॥

तो भी कितने हृदयहीन जन वंचक उसे बनाते हैं।
कितने नीरस फल विलोक उसको असरस बतलाते हैं।
पर विचित्रता क्या है इसमें, भूतल को यह भाता है।
धारती में प्राय: पर का अवगुण ही देखा जाता है॥6॥

(5)
दुरंगी दुनिया
 
अजब है रंगत दुनिया की।
बदलती रहती है तेवर।
किसी पर सेहरा बँधाता है।
उतर जाता है कोई सर॥1॥

किसी का पाँव नहीं उठता।
किसी को लग जाते हैं पर।
धूल में मिलता है कोई।
बरसता फूल है किसी पर॥2॥

(6)
निर्मम संसार

वायु के मिस भर-भरकर आह।
ओस-मिस बहा नयन-जलधार।
इधार रोती रहती है रात।
छिन गये मणि-मुक्ता का हार॥1॥

उधार रवि आ पसार कर कान्त।
उषा का करता है शृंगार।
प्रकृति है कितनी करुणा-मूर्ति।
देख लो कैसा है संसार॥2॥

(7)
उत्थान

अहह लुट गया ओस का कोष।
हो गया तम का काम तमाम।
कुमुद-कुल बना विनोद-विहीन।
छिना तरु-दल-गत मुक्ता-दाम॥1॥

हर गया रजनी का सर्वस्व।
छिपा रजनी-रंजन बन म्लान।
हुआ तारक-समूह का लोप।
दिवाकर! यह कैसा उत्थान॥2॥

(8)
फल-लाभ

चुन लिये जाते हैं लाखों।
अनेकों नुचते रहते हैं।
करोड़ों वायु-वेग से झड़।
विपद-धारा में बहते हैं॥1॥

धूल में मिलते हैं कितने।
बहुत-से विकस न पाते हैं।
सभी का भाग्य नहीं जगता।
सब कुसुम कब फल लाते हैं॥2॥

(9)
मन की मनमानी

अड़े, बखेड़े खड़े हो गये।
पीछे पड़े, न किसे पछाड़ा।
डटे, बताई डाँट न किसको।
झझके, बड़े-बड़ों को झाड़ा॥1॥

उलझे, किसे नहीं उलझाया।
सुलझ न पाता है सुलझाये।
तिनके, बना बना तिनकों से।
फूँक से गये लोग उड़ाये॥2॥