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पार्थिव / उत्पल बैनर्जी / मंदाक्रान्ता सेन

ईश्वर से प्रेम के चक्कर में
मैं तो देवी बन ही गई थी !

जब तुम आए तो कितनी
इनसानी गन्ध थी तुम्हारी देह में
और तब पद्म-पलाश थे मेरे नाख़ून
जिन्हें तुम्हारी छाती में गड़ाना चाहती थी
लेकिन वे नहीं बिंध रहे थे

मेरे होंठों पर अमृत-मलाई की मोटी परत थी
तीन दिन शेव न किए गालों पर
रगड़ते ही लौट आई छिपी हुई धार
फिर भी मैंने कहा : ज़रा बैठो
मैं मन्दिर में दिया दिखा आती हूँ ।

लेकिन तब धधकती शिखा थे मेरे नाख़ून
संध्या-बाती के वक़्त
उछलकर ईश्वर के बहुत क़रीब
जा गिरे,
मैंने देखा, जलने लगा उनका उत्तरीय
दिखाई दिया उनका दमकता चेहरा
बोले :
हिलो मत, डरो नहीं, थिर रहो ।
 
... लेकिन मैं कोई
सचमुच की देवी तो थी नहीं

अब तुम ही बताओ
मुझे भला क्यों डर न लगता !
मैंने खींच-खींच कर उखाड़ दिए
जलते हुए सारे नाख़ून
फिर साँस खींचकर निकली बाहर
और बेतहाशा लगा दी दौड़

एक सौ आठ सीढ़ियाँ उतर
पार कर तोरण द्वार --
अपने पूरे अतीत समेत
धू-धू जल रहा था स्वर्ग ...
ईश्वर का घर फूँक देने का पाप
मैं आज भी वहन कर रही हूँ;

लेकिन मैं किसी भी हालत में देवी नहीं बनी
यक़ीन करो मैं देवी क़तई नहीं बनी
यह देखो, फटे हुए हैं मेरी हर उँगली के सिरे
नाख़ूनों की जगह हैं बजबजाते घाव

ख़ैर होने दो, ओ पार्थिव लड़के
तुम्हारी नग्न छाती में है वनौषधि
वहाँ, सोई हुई घास से
क्या तुम मुझे अपना ख़ून नहीं पोंछने दोगे ?

मूल बांगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी