राग पीलू
पर करूँ कैसे दुर्गम पथ का विस्तार अपार?
शिलाखण्ड दुर्धर्ष, क्षितिज का सीमाहीन प्रसार!
भग्न दरारों, फरों, झाड़ों झंखाड़ों का जाल,
टेकड़ियों की उदर-दरी में निर्जनता विकराल,
चुभ-चुभ जाते काँटे पगतलियों में बारम्बार,
गगनपटल पर पोत रहा कालिमा तिमिर दुष्पार,
हहर-हहर कर प्रलय-प्रभंजन करता तीक्ष्ण प्रहार,
पार करूँ कैसे? दुर्गमता का विस्तार अपार?
बढ़ना ही बढ़ना है मुझकां लक्ष्य-शिखर की ओर,
मेरे रोम-रोम से उठती स्वर-झंकार मरोर,
नव स्वप्नों की कम्पन-लहरी रही मुझे झकझोर,
उठती मन-अम्बर में अरमानों की भँवर-हिलोर,
रह-रह कर बर्फीली आँधी छोड़ रही फुफकार,
पर मैं क्रमण करूँगा दुर्गमता का गहन पठार।
(15 अक्तूबर, 1973)