धरती सिहर उठी मन ही मन
लरज गरज घन बोला
चन्दा आसमान में डोला
कड़ी जेठ की दोपहरी में
सरपट पुरवैया चलती थी
चिल चिल धूप धूलि से मिल मिल
तपती और स्वयं जलती थी
दूर क्षितिज पर खिंच आयी थी
काली सी बादल की रेखा
आज ग्रीष्म के गर्भाशय में
नन्हे पावस शिशु को देखा
सूरज तपता था हो जैसे
तपा आग का गोला
चन्दा आसमान में डोला
बढ़ आये सैनिक बादल के
दल के दल बँट कर मड़राये
रूखे स्वर, सूखे अधरों पर
रिम झिम बन बरबस छितराये
चढ़ आया तूफान टूट कर
लगे बरसने तड़-तड़ ओले
जान पड़ा यह उड़ जाएगा
पकड़ बाँह में पर्वत को ले
झंझा से लड़ने वाले
विटपों ने भी बल तोला
चन्दा आसमान में डोला
अभी वनस्पति के आँगन में
छायी थी कुछ अजब उदासी
गर्मी की ऊमस में गुम-सुम
सोच रहा था विकल प्रवासी
पच्छिम के उस पार क्षितिज पर
सन्ध्या विरहिन फिर मुसकाई
दिग दिगन्त ने साध लिया दम
प्रकृति नर्त्तकी भी सकुचाई
आज भयानक रस चिड़ियों ने
अपने स्वर में घोला
चन्दा आसमान में डोला
बैठ आम की डाली पर
कोयल ने पंचम तान अलापी
प्रथम दिवस आषाढ़ देखकर
नाज उठा मन-मुग्ध कलापी
मेघों के झुरमुट में चन्दा
आँख मिचौनी खेल रहा है
पवन बनाकर ‘ट्राली’ घन-
खण्डों को आगे ठेल रहा है
स्वाती की आशा में बैठा
चातक ने मुँह खोला
चन्दा आसमान में डोला
झींगुर ने झंकार शुरू की
मेढ़क उछल लगा टर्राने
जलती दूब लगा मुसकाने
दिल में शौक लगा चर्राने
बूंदा बांदी हुई कि कृषकों
के मन में उल्लास भर गया
हरियाली भर गयी कि
सरसिज के मुख से मृदुहास झर गया
विकल विहग ने विहगी के
अन्तर को आज टटोला
चन्दा आसमान में डोला
लगी कल्पना परी नाचने
धन-खेतों में साज सजाकर
जन-गण-मन को लगी नचाने
एक नया संगीत बजाकर
ये किशोर गन्ने के पौधे
लहराये कमला के तट पर
उमड़ी किन्तु विषाद घटा
हा! कोशी तट के हर पनघट पर
धरती विवश बदलने वाली
है अब अपना चोला
चन्दा आसमान में डोला