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पावस गीत / यतींद्रनाथ राही

चलो!
भीगलें!
फिर सावन में।

जब जब पावस के अधरों पर
धरे मेघ ने प्रणय-समर्पण
रोम-रोम पर
गीत लिख गए
अंग-अंग पर
सिहरन-सिहरन
नाच उठी थी भीगी धरती
भरी लताएँ पादप गुम्फन
गन्ध बावली
भेज रही थी
दूर गगन पर नेह निमन्त्रण
बोये थे हम तुम दोनों ने
गेहूँ के ज्वारे
आँगन में।
टूटे हैं तट बन्ध नदी के
मचल रही लहरों की चाहें
भरे ज्वार आकुल अन्तस में
पसरी हैं
सागर की बाँहें
भँवर
प्रतीक्षा अभिसारों के
फेनिल ज्वार
उभरते आखर
गालों पर झरते पलकों से
मौन-मुखर गीतों के निर्झर
बहुत बटोरे हैं
हमने भी
बूँदों के मोती दामन में

माना
अपनी उमर नहीं है
समय नहीं हैं रँगरलियों का
सब कुछ जैसे बदल गया है
राजपंथ का
इन गलियों का
डर लगता है
गिरे न बिजली
कहीं हिंडोलों मलहारों पर
फटकर गिरे न
बादल कोई
राखी के पावन धागों पर
धर्म हमारा
रहें फूकते
वंशी प्यार भरी
मधुवन में।
28.6.2017