पाव-भर भी जो
शरद् की चाँदनी यह
ढाल पाता
प्राण के भीतर ! --
निकलता प्राण से जो भी
शरद्-सा ही विमल होता --
उतर हर प्राण के भीतर,
कँपा उसके अन्धेरे को,
जुही की चाँदनी उसमें तना देता !
पाव-भर भी जो
शरद् की चाँदनी यह
ढाल पाता
प्राण के भीतर ! --
निकलता प्राण से जो भी
शरद्-सा ही विमल होता --
उतर हर प्राण के भीतर,
कँपा उसके अन्धेरे को,
जुही की चाँदनी उसमें तना देता !