पाश बँधी प्रियतमा,
उन्मुक्त होते, बेपरवाह सी
किस अन्वेषणा में जीती है?
प्रेमियों के हाथों प्रताड़ित होते भी
जानें किस प्रेम का अमृत पीती है?
खुशियों को अपनी बलि चढ़ाते
प्रेमी की सुधी लेती है,
गम अपने लबों पर मलकर
सुख तन-मन का देती है
मिटाकर अपना अस्तित्व
प्रीत के आगे झुकती है या,
हवस की मारी खुद होती है?
प्रेमी के पाखंड़ के आगे भी
काया परोस देती है
नारी मन की चौखट शायद
पाक, साफ़-सी होती है,
झूठे अपनेपन को भी तो
गुलाब-सा बो देती है
बँध जाती है उर से जिन संग
नखशिख समर्पित रहती है,
और सबब तो क्या होगा जो
दमनचक्र पर सर रखकर भी
प्रीत के मोती पिरोती है
हद-ए-इन्तेहाँ तब होती है
एक तरफ़ा-सा रिश्ता निभाते,
कफ़न का चोला पहनते बाँवरी
चिता भी चढ़ जाती है।