फिर
वही जलती मशालें
शहर भर में
धुएँ की दीवार
हाथों में उठाए
हर गली में
फिर रहीं पगली हवाएँ
घुप
अँधेरे हो रहे हैं
दोपहर में
शोर की परतें
घरों पर जम गयीं हैं
साँस जैसे काँप कर
फिर थम गयी है
सिर्फ़
गहरे घाव हैं
दूबे ज़हर में
गाँव भर के
इस कदर हिस्से हुए हैं
पास सूखी नदी के
किस्से हुए हैं
काठ की
गुड़िया पड़ी है
खंडहर में