दुपहर में कण्ठ खोल बोले नीलकंठ
प्रखर ज्वाल धूप थी, भूख थी
रक्त चक्षु दीठ थी, प्यास थी
नग्न बाहु पीपल था, मौत थी
नाचती दुपहरी में, पी-पी कर मृगवारि
शस्यपीत धरती का गीत लिखे निलकंठ
सांझ बड़ी सुन्दर क्षमामयी
धीर पग, शान्त, दयामयी
आयी ज्यों मां ममतामयी
परमारे अभिमान के गोधूली लग्न में
डैनों में मुँह छिपा रोये नीलकंठ
मानी-अभिमानी नीलकंठ!
घिरती है गरल-स्नात रात
प्रेतों-चुडैलों के काम-संघात
वट-पीपल तक के झूमते गात
माया कुहक से रातभर जूझे फिर
मन के पहरुए ये नीलकंठ
पाहन-मन नीलकंठ।