Last modified on 23 सितम्बर 2014, at 10:13

पा लिया अन्तस् / रमेश रंजक

पा लिया अन्तस् अतुल भण्डार का
झर गया डर टूटते परिवार का ।

आ समाया आँख में दरवेशपन
दूरियों तक दृष्टि फैली अद्यतन
क्षितिज छाहें साँवली, राहें हुईं
अतल की लय में खिले सातों वरन
एक पारावार का आशीष पा
बढ़ गया आकाश मेरे प्यार का ।

स्नेह सागर का सहज स्वीकार कर
पँख पाए हंस के, आवाज़ भी
थिर-अथिर की नीलिमा को नापने
हुमस-हिलकोरें मिलीं, परवाज़ भी
पत्थरो ! बहुवचन-स्वर पहचान लो
है नहीं मोहताज यह दरबार का !