आकाश में बादल हैं उमड़ते-घुमड़ते
हवाएं हैं जंगल में नाच करतीं
पेड़-पौधे हैं मस्ती में डोलते
पक्षियों की आवाजों का महारास है
ऐसे मौसम में उतरने का मन है
दिशा सतपुड़ा की घाटी की तरफ
जहां का मैं वाशिंदा
बारिश की आमद का समय है
कभी भी उतर सकती है अप्सरा सी वह
मैं उसके इश्क में डूबा हूं
मेरे पांवों में अजीब सी ताकत भरी है
और भीतर कुछ घट रहा है
प्रकृति मदहोश कर देने वाले राग में डूबी है
चीतल झुंडों में भागते हुए दिख जाते हैं
मटियाली गौरेय्या फुदकी मारती है
और उसकी भीगी चहचहाहट कितनी मीठी है
पास के नाले से निकली क्षीण धारा में
दो-तीन कौव्वे हैं पंख फड़फड़ाते हुए
उड़ता हुआ एक तोता सामने से गुजरता है
आगे कितने कोमल पल हैं जिनमें से
विचरता मैं जैसे जंगल हुआ जाता हूं
झन-झन करती वर्षा अब पेड़ों से
उतर रही है मल्हार गाती हुई
कूऊ...कूऊ...कुहू...कुहू...किक...किक... डूबा है उत्सव में यह दिन मेरा
जैसे मेरे भीतर से उठ रही है पुकार
पिउ...पिउ...पिउ...
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