पिता (तीन)
पिता ! मेरी आँखें तो खोजती रहीं केवल
तुम्हें
दिन ढले आँखों की फैली-फैली आँखों की लाली में
दहाड़ती आवाज़ की भयावहता में
माँ की पीठ पर पड़ती सटाक की आवाज़ में
और सुबह- सुबह
रात की ख़ुमारी से उत्पन्न
उनींदेपन में कौंधती
बेआवाज़-सी पहचान में.