Last modified on 21 अगस्त 2009, at 21:54

पिता / सरोजिनी साहू


तुम रहते हुए भी
कहीं नहीं हो. क्यों?
हमेशा आते जाते हो
पर एक ही बिंदु पर
स्थिर हो. क्यों?

पत्ते झड़ते हैं, उगते रहते हैं
आंधी से अस्तव्यस्त जीवन
पुष की जाड में जम जाती है
बर्फ की कणे,
फिर भी तुम निर्विकार
मंदिर के शिखर के भांति. क्यों?

समय पर भूख,
धुप से प्यास,
प्यास से थकान.
पर हर दरवाजे पर तुम्हारा दस्तक
जैसे अंत तक लड़ता हुआ सैनिक हो तुम

डाल- डाल पर चिडियों की चें-चें
उस पेड़ की छाया में आश्रित मैं
पर लगता है
न जाने क्यों
पास होते हुए भी बहुत दूर हो तुम

तुम पसार लिए हो बाहें
बृक्ष-शाखा की तरह
बुलाओ या न बुलाओ,
गिलहरी से तितली तक
कितने निर्भय से आते जाते रहते हैं
तुम्हारे आपाद-मस्तक
पर तुम हो निर्जीव,
कठफोड़वा खोदते हैं तुम्हारे शरीर
बुलबुलों की तरह
झूलते हैं, अंडे देकर उड़ जाते हैं
उनके बाट जोहते हुए
तुम बैठे रहते हो.

सूखती हुई शिराएँ
निष्प्रभ होती रहती आँखों की दृष्टि
वक्कल छोड़ता रहता है शरीर
और
रहते हुए भी
कहीं न रहते हुए
शब्द-हीन तुम.

(अनुवाद: 'जगदीश महान्ति )