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पिता का मन / स्मिता सिन्हा

मैं लिख देती हूँ
अपने घर की नींव
घर की ऊंची छत
और सारी मज़बूत दीवारें
अपनी गली अपना मोहल्ला
और अपने घर का पता
मैं लिख देती हूँ
चूल्हे में धधकती आंच
पकती रोटियाँ
और तृप्त होती भूख
मैं लिख देती हूँ
एक सुकून भरी नींद
और कुछ मीठे सपने
मैं लिख देती हूँ
आँगन का वो विशाल दरख्त
और पत्ती पत्ती छांव
मैं लिख देती हूँ
सागर,धरती,आकाश
और पहाड़ सा एक जीवन
बस नहीं लिख पाती तो
चेहरे की कुछ झुर्रियाँ
खुरदरी हथेलियाँ
और थकते लड़खड़ाते क़दम
हाँ कभी भी नहीं लिख पाती मैं
अपने पिता का मन...