अब भी पिता जी
स्टेशन से घर
पाँव दु:खाते पैदल ही आ जाते हैं !
इस दलील पर
कि खाली नहीं था कोई रिक्शा
पिता जी अब भी
भड़क जाते हैं देखकर
विधुत का बेजा इस्तेमाल,
पिता जी अब भी
लौटते हैं रोज़ पैदल ही बाजार से
लिये हरी सब्जियों का थैला,
पिता जी अब भी
अंकित करते हैं डायरी में
हर दिन के खर्च का हिसाब
पहले कई बार मैं
विचलित हो जाता था
सोच कर इसकी जरूरत ?
पर अब समझ पाया हूँ
पिता जी ने
कण- कण संजोकर रचा
और संवारा है मझे,
खुद को संयमित कर
सिखाया है मुझे कि
मेरे पाँव टिके रहें जमीन पर
तब भी जब मैं उड़ सकता हूँ
आसमान में !