Last modified on 28 जुलाई 2024, at 23:26

पिता पुराने दरख़्त की तरह होते हैं / महेश कुमार केशरी

आज आंँगन से
काट दिया गया
एक पुराना दरख़्त

मेरे बहुत मना करने
के बाद भी

लगा जैसे भीड़ में
छूट गया हो मुझसे
मेरे पिता का हाथ

आज,बहुत समय के
बाद, पिता याद
आए

वही पिता जिन्होनें
उठा रखा था पूरे
घर को
अपने कंँधों पर
उस दरख़्त की तरह

पिता बरसात में उस
छत की तरह थें
जो, पूरे परिवार को
भींगने से बचाते

जाड़े में पिता कंबल की
तरह हो जाते
पिता ओढ़ लेते थे
सबके दु:खों को

कभी पिता को अपने
लिए , कुछ खरीदते हुए
नहीं देखा

वो सबकी ज़रूरतों
को समझते थे।
लेकिन, उनकी अपनी
कोई व्यक्तिगत ज़रूरतें
नहीं थीं

दरख़्त की भी कोई
व्यक्तिगत ज़रूरत नहीं
होती

कटा हुआ पेंड़ भी
आज सालों बाद पिता
की याद दिला रहा था

बहुत सालों पहले
पिता ने एक छोटा
सा पौधा लगाया
था घर के आंँगन में

पिता उसमें खाद
डालते
और पानी भी
रोज ध्यान से
याद करके

पिता बतातें पेड़ का
होना बहुत ज़रूरी
है आदमी के जीवण
में

पिता बताते ये हमें
फल, फूल और
साफ हवा
भी देतें हैं!

कि पेंड़ ने ही थामा
हुआ है पृथ्वी के
ओर - छोर को

कि तुम अपने
खराब से खराब
वक्त में भी पेंड़
मत काटना

कि जिस दिन
हम काटेंगे
पेंड़
तो हम
भी कट जाएँँगें
अपनी जड़ों से

फिर, अगले दिन सोकर
उठा तो मेरा बेटा एक पौधा
लगा रहा था

उसी पुराने दरख़्त
के पास ,
वो डाल रहा था
पौधे में खाद और
पानी

लगा जैसे, पिता लौट
आए!
और वह
दरख़्त भी !