हवा में
उड़ रहे हैं पत्ते
पेड़ विवश और चुप
देखने को अभिशप्त
उसकी देह के हिस्से
स्वेद -रक्त से बने
सुख -दुःख में
साथ -साथ
झूमे झुलसे
भींगे कंपकंपाये पत्ते
इस कदर बेगाने
कि
उड़े जा रहे हैं
बिना मुड़े ही
तेज हवाओं के साथ
जाने किस ओर
भूल चुके हैं
साथ जीए सच को
क्या उन्हें याद होंगी वे किरणें
जो सुबह नहलाती थी
गुनगुने जल से उन्हें
चिड़ियाएँ जो मीठे गीत सुनाती थीं
की नई यात्रा के रोमाँच में
भूल चुके होंगे सब कुछ
पर कैसे भूला दे जमीन से जुड़ा पेड़
वह तो पिता है