रात दिन झलते रहे
रंगीन पत्तों से
वृक्ष वे फिर भी रहे
मेरे लिए अनजान।
वे नहीं थे भोजवृक्षों
की तरह अभिजात
मानते थे वे वनस्पति की
न कोई जात।
पत्तियाँ उनकी सभी
होती कनेर-गुलाब
घोर पतझर में दिलाते
फागुनी अनुदान।
उड रहे हैं फडफडा
इतिहास-जर्जर पत्र
दिख रही पतझार की
आवारगी सर्वत्र।
डूबता दिन चंदगहना
चीडवन के पार
लडकियों के सुर्ख
गालों की तरह अम्लान।