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पीड़ादायी पुनर्जन्म / रघुवंश मणि

एकाएक

बदल जाते हैं सारे रंग

गिरने लगती हैं पत्तियाँ

उड़ने लगती है धूल


कुछ ऎसा होता है एक दुपहर

सूरज की रोशनी खटकने लगती है

आँखों में उड़ आती है किरकिरी


असंभव-सा लगता है हरापन

छूँछी हो जाती हैं आशाएँ

फट जाते हैं आकाश में पखने


हर बार गुज़रता हूँ

इस पीड़ादायक पुनर्जन्म से

फिर भी डूबने लगता है मन

न जाने क्यों