Last modified on 17 अगस्त 2012, at 17:05

पीड़ा / कल्पना लालजी


कतरा –कतरा आज ह्रदय से
पीड़ा को बह जाने दो
सदियों रोका अंतर्मन को
आज इसे बह जाने दो


संबंधों की चादर ओढे
तार ह्रदय के तूने जोड़े
पुष्प वसंत के तूने तोड़े
आज इसे तुम रोको न
रिसने दो बह जाने दो

सूखी ड़ाल के पहरेदारों
पतझड़ के इस मौसम में
सांसों की इस डोरी को
तन के इस बन्दीग्रह से
धीरे –धीरे कट जाने दो

बोझिल मेरी पलकें आज
कंपन का कण –कण पर राज
कैसे बोलूं मैं लब खोलूँ
तृष्णा के इस खग को तुम
दूर कहीं उड़ जाने दो

वेदना की बदरी कारी
घिर कर आई है अंधियारी
बरसी नैनों की हर क्यारी
टीस उठी जो रग – रग में
आज उसे मिट जाने दो


सहमी सी इन राहों में
उभरी सिसकी भी आहों में
आज रहे न कुछ भी बाकी
क्लेश ह्रदय का पीर व्यथा की
शबनम बन जम जाने दो

कतरा –कतरा आज ह्रदय से
पीड़ा को बह जाने दो
सदियों रोका अंतर्मन को
आज इसे बह जाने दो