अरी ओ चंचल पीड़ा
क्यों फेंकती हो पत्थर
मेरे भव्य सागर में
और भाग जाती हो
दबे पांव वापिस
पानी पर फ़ले
दायरों के तनाव को
अनदेखा करती?
आरी औ नटखट कसक
क्यों देती हो दस्तक
मन-मन्दिर के द्वार पर
और मुडती हो
दबे पांव वापिस
यादों के घंट-नाद को
अनसुना करती?
यह जानते हुए भी
कि आँख और बारिश का रिश्ता
उतना ही पुराना हे
जितना नींद और ख़्वाब का.
तन्हाई को ओढ़ कर
इस दहकती बारिशों के मोसम में भी
पार कर सकता हूँ में
समय का यह गहरा समुद्र
लेकिन...
लेकिन तुम साथ चलो तो
मेरे ज़ख़्मों की हरियाली को
मिलेगी
नमक की मित्रता.