जल ही जल की
नीली-दर-नीली गहराई के नीचे
जमे हुए काले दलदल ही दलदल में
अपनी ही पूँछ पर सर टिका कर
सो रहा था वह
उचटा अचानक
भूला हुआ कुछ कहीं जैसे सुगबुगाने लगे।
कुछ देर उन्मन, याद करता-सा
उसी बिसरी राग की धुन
जल के दबावों में कहीं घुटती हुई
एक-एक कर लगीं खुलने
सलवटें सारी
तरंग-सी व्याप गयी जल में
अपनी ही पूँछ के बल खड़ा
झूमता था वह
फण खिला था राग की मानिन्द।
ऊपर जल की नीली गहराई में से
फूट-फूट आते थे
पीत कमल !
(1980)