पीली लहठियों वाले हाथ
रात दिन सपने बुनते हैं
आँखों की लाल लकीरों में
काजल की हल्की डोरों में
नाचती मयूरी की पाँखोंवाली
चादर के कोरों में
हल्दी के दाग वाले हाथ
पल-छिन अपने बनते हैं
चौके की रुनझुन बहुत भली
आँचल में छपी लाल मछली
गहुँआ हँसियों की झीलों में
कलियाँ जूही की बहुत खिली
टिफिन सजाने वाले हाथ
मगन हो कितने सुनते हैं
आँगन भर गाती जो बिछिया
देहरी पर जलती बनी दिया
अगवानी में प्रार्थना बनी
वर्षा में भीगी ज्यों नदिया
स्वागतम लिखने वाले हाथ
सहज ही इतने रमते हैं
(५ जनवरी, १९९७)