सीप -शंखों तक हमें भी ले चलेंगे
पीलिया सैलाब में बहते हुए दिन
टूटती मेहराब से, शहतीर से
दे रही आवाज़ कड़वी छटपटाहट
तंग दहशत के कुएँ में खुद- ब - खुद
डूबती है रात, उठती सनसनाहट
सिर्फ़ जलते प्रश्न पूछेंगे सुबह में दहके हुए दिन
हैं मुखौटे, सर कटे सब लोग हैं
उठ रहे है मंच, सूनी दीर्घाएँ
हर तरफ दीवार - दर - दीवाऱ है
मोड़ सब गुँगे हैं, बहरी दिशाएं
धुएँ के संवाद साँसों में लिए है
चिमनियों के नगर में रहते हुए दिन
खून के खप्पर उठाते हैं प्रहर
लपलापाती लौ कपोलों में जलाए
हड्डियों पर नाचती खामोशियाँ
हर चिता की भस्म अंगों पर लगाए
यंत्र के जंगल बसाए तांत्रिकों को
नग्न - प्रेतों की कथा कहते हुए दिन
पीलिया सैलाब में बहते हुए दिन