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पुकारे जा रहे हो अजनबी से चाहते / ज़फ़र गोरखपुरी

पुकारे जा रहे हो अजनबी से चाहते क्या हो
ख़ुद पने शोर में गुम आदमी से चाहते क्या हो

ये आँखों में जो कुछ हैरत है क्या वो भी तुम्हें दे दें
बना कर बुत हमें अब ख़ामोशी से चाहते क्या हो

न इत्मिनान से बैठो न गहरी नींद में सो पाओ
मियाँ इस मुख़्तसर सी ज़िंदगी से चाहते क्या हो

उसे ठहरा सको इतनी भी तो वुसअत नहीं घर में
ये सब कुछ जान कर आवारगी से चाहते क्या हो

किनारों पर तुम्हारे वास्ते मोती बहा लाए
घरोंदे भी नहीं तोड़े नदी से चाहते क्या हो

चराग़-ए-शाम-ए-तन्हाई भी रौशन रख नहीं पाए
अब और आगे हवा के दोस्ती से चाहते क्या हो