ओ मनु!
कहाँ हो?
कहाँ है वह वसुधैव नौका
जो बनाई थी तुमने
प्रलय का संकेत दिया था तुम्हें
एक सींग वाले विशाल मत्स्य ने
कि आऊंगा मैं
तुम सभी सृष्टि-सहायक बीजों को लेकर
सवार हो जाना नौका पर
चल दिये थे तुम
उत्तान लहरों से आलोड़ित समुद्र पर
जहाँ कुछ न था
अथाह जलराशि के अतिरिक्त
दृग्गत
तब खींची थी तुम्हारी नौका की रस्सी उस विशाल मत्स्य ने, अपने सींग से
कहाँ हो तुम?
बिठा लेते मुझे भी उस नौका में
पहुँचा ही था तट पर कि जा चुकी थी तुम्हारी नौका
क्षितिज पार
मैं आज भी हूँ वहीं
प्रतीक्षा में तुम्हारी
आओ मनु
फिर आ जाओ!