आज की दोपहर
कितनी तारी रही हम पर
कि, दूर होकर भी तुम
बहुत नजदीक आ गए थे
आज तुम्हारे शब्दों की कंपन
और मेरी मन्नतों के पथराए होंठ
चीख- चीख कर अपने होने की
गवाही दे रहे थे
आज उदासी के हक में
बोलना मना था
आज ठहर कर सोचना और
पीछे मुड़कर देखना भी
मना था
तुमको आँसू गंवारा न था
और मैं आरजुओं की बरसात में
दरिया बनी जा रही थी
इससे पहले की मैं
तुम्हारे प्रति कृतज्ञ होती
दर्प की एक खनक
रह-रह कर खनखना रही थी
मेरे भीतर ही भीतर
आज आँखों में सपने नहीं
महत्वकांक्षाएं चमक रही थी
और मन में बेचैनी की जगह
तसल्ली ने ले ली थी
आज अपनी तमाम कोशिशों के
बावजूद तुम्हारे अंतहीन
प्रेम की भंगिमाओं के बीच
लताओं सी लिपटी मैं
उदित और अस्त होती रही
अब जब ढलती हुई शाम के साथ
सब लौट रहे हैं
तो क्या मुमकिन नहीं
तुम्हारा पुनरागमन...!!!