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पुनर्जन्म / तारा सिंह

समाधान की कोई बात नहीं
केवल और केवल समस्या
मैं नहीं चाहती, मेरा पुनर्जन्म हो
मैं फ़िर से आऊँ यहाँ, जहाँ
घर-दफ़्तर,विद्यालय-मंदिर प्रांगण में
पाप- पुण्य, त्याग-तपस्या की अब
बातें नहीं होतीं, होती केवल हिंसा

आत्मजनों के प्रति सेवा-भाव नहीं रहा
घटती जा रही श्रद्धा और आस्था
विलुप्त होती जा रही कली-कुसुमों से घाट
बाँधकर पानी को गहरा रखने की प्रथा
अब तो मालिन मरोड़ती,निज हाथों से
नव कलियों को,कोकिला-कुंज बीच बैठी
जीवन दुख विराम की करती प्रतीक्षा

ग्यानक्षेत्र जो शास्त्रों से रहता था कभी भरा
आस्ति-नास्ति का भेद, तर्क-युक्ति से नहीं
कर्मों से होता था निर्धारित, स्वर्ग की राह
दिखलाता था ब्राह्मण–पंडित और देवता
पुरवैया, वन-तुलसी की गंध लिये बहा करती थी
विहग कुल के कंठ –हिलोर से, नभ-भू का छोर
मिल जाता था, अचंभित हो उठता था विधाता

मंदिर के शंख-घंट की ध्वनि से
जब लहरों में कंपन होता था, तब
अग्यात जीवन का विचार, अंधकार से
उठकर स्वयं ऊपर आ जाता था
अजय योगियों के जीवन–मुक्ति की सुरभि
स्वर्गोन्मुख सोपान पंथ सा,विछ जाता था
उनकी दीप्त प्रेरणा, तरितों से लिपटकर
शत सृजन का रूप लेकर, करती थी वर्षा

भारत संसृति के मृत सैकत को प्लावित करने
तरंगित हुआ करती थी, विष्णुपदी, शिवमौली
भीष्मप्रसु गंगा, आज पड़ा है गंदला
ऐसे में ठूठे तरुओं के नग्न-गात के मांस-
पेशियों में फ़िर से कौन भरेगा कोमलता

कब्र-कब्र में अबोध शिशु की भूखी हड्डी रोती
विवश माँ की छाती से लगकर बच्चा रोता
उस पर भी कुपित देव की शाप-शिखा
विद्युत बन जब सिर के ऊपर छा जाती
तकदीर कहती, अरे अभागा, चुप बैठ
सूई से अपने मुँह को सिल
तू नहीं जानता, नीतितुला को सम रखने
फ़ूल ही फ़ूल नहीं, कुछ चिनगारी भी चाहिये
तभी बनी रहेगी जीवन की समरसता


जहाँ मुनियों की गोद में मेनका बैठती
कंगालों का कोष चुराता राजा
मैं नहीं चाहती, मेरा पुनर्जन्म हो
फ़िर से मेरा आना हो यहाँ
जहाँ समय माँगता मुक्ति का मूल्य
सुख दर्पण दिखलाकर, अदृश्य हो जाता देवता