तुम्हारे कहे शब्द
मंदिर की घंटियों की तरह
गूँजते
उस दूर पहाड़ी तक आवाज़ जा कर
पुनः लौट आती है
जैसे कोई राग लय में आरोह पर
फिर
ढ़लान पर शब्द फिसलते
ज्यों फिसलन भरी पगडंडियों पर
पाँव अनायास फिसलते
कहीं यथार्थ से भटकता ध्यान
अतीत के गलियारे में
जा उलझता
मैं ध्यान से पाँव पाँव धरती
डगमग सा मन
बारिश का जोर
इस बार बरसात बहुत तीव्र है
वह बरसती नहीं
करीब बुलाती है
बूँदों को कोरा चखना
वह अमृत सी है
पुनर्जीवित करती
पुनर्नवा बन कर!