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पुरश्चरण- 2 / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

मेरी अनुभूति के किन्हीं क्षणों में
     मेरे अस्तित्व के परमाणु
     कुछ इतने सघन हो उठे
     कि मेरे प्राणों ने
     एक वर्तुल बना लिया
     उस वर्तुल में कुछ उद्भास जगा
     और मेरा अंतःकरण
     एक मौन अंतर्ध्वनि से तरंगित हो उठा
     सृिष्ट के पल
     अपने अंतर्बाह्य विकारों में आपूरित हो उठे
     इसी क्षण
     भावानुभूतियों के अंकुरण से
     मैं भावाकुल हो उठा
     मेरे भावापन्न पल
     मुझे ठेलकर उस विंदु तक ले गए
     जहाँ संवेदना के आकाश ने
                           
     ठोस धरती का रूप लिया
     सृजन के क्षण अकुला उठे
     अभिव्यक्ति को रूप का ढाँचा मिला
     और मेरे हृदय की तरंगों ने
     अपने को रच-बुनकर
     अपनी ही शाखों पर कुछ फूल खिलाए
     मैने शाखों से अलग किए बिना ही
     इन फूलों को एक तरल सूत्र में गूँथ लिया
     यह गुंथन ही
     इस संगुम्फन में रूपांकित हो उठा है
     एक पुष्पमाला की तरह.