छीतन काका भेटला भोरे,
कहलनि-बौआ थिक व्यर्थ आब साहित्य-सृष्टि,
की हैत लीखि कऽ उपन्यास,
ककरा लय लीखू महाकाव्य,
हो समालोचना, रिपोर्ताज,
नाटक, एकांकी वा कविता,
की नहि लिखलहुँ!
अछि कोन विधा छूटल हमरा,
बस एक विधा छूटल हमरा,
पामोजी नहि कयलहुँ ककरो
कथमपि नहि होयत हमरासँ!
सब व्यर्थ गेल, सब व्यर्थ भेल,
हमरा लय बुझू अनर्थ भेल
हम गेलहुँ फेका बड़ दूर,
भेलहुँ मजबूर जनउ पहिरु किएक?
नहि हर-हर बम-बम कैल करब,
सबटा हम देब उखाड़ि फूल फुलवाड़ीसँ
की नहि कयलहुँ?
नहि कोन देवता-पितरहुकेँ गौहरौलहुँ हम
सब व्यर्थ गेल, सब व्यर्थ भेल,
हमरा लय बुझू अनर्थ भेल।
भऽ गेल तेहन मन छोट देखाइछ
तारा दिन दुपहरियामे
पैरक तर धरती ससरि गेल,
नहि किछु लगइत अछि नीक
मोन लगइछ उन्मन
उजरा धोती, उजरा, कुर्त्ता
छल कोकटी रंगक साल तथा
चौपेतल चद्दरि बाकसमे,
सब व्यर्थ गेल, सब व्यर्थ भेल,
हमरा लय बुझू अनर्थ भेल,
एहिबेर रहब नहि चुप्प भेल
हम लिखब मनक सब बात
किए तँ देबै घोसाड़ि
सभक बुधियारी एहिबेर।
हम देबै सबहिकेर दाँत झाड़ि
कल्ला नहि ककरो अलगतैक
छै बड़-बड़ एहिमे दाव-पेँच
नहि बुझय अबै अछि तेँ की हम रहि जैब चुप्प?
एहिबेर करब सबकेँ उधार
तखने जा टुटतै अहंकार
दिल्लीसँ लय दरभंगा धरि
गंगासँ लय कोशीक पार धरि छै परिचय
से पता लगाबह कोना भेलै अछि एहिबेर
के छल निर्णायक मंडलमे
भीतरकेर जरइत आगि कका उगिलैत छला,
हम टुकुर-टुकुर मुँह तकै छलहुँ,
नहि बुझलियैक की कारण छै,
सब एक साँसमे बाँचि गेला
हम्मर काका, अप्पन काका।
हमरा किछु मुस्की दैत देखि डँटलनि काका,
हौ! नै सुनलह अछि समाचार?
छै सब पेपरमे देल उपरके हेडिंगमे
साहित्यरत्नकेर भेलै घोषणा एहू बेर,
हम गेलहुँ छूटि,
धुर भेटलै अछि ई पुरस्कार
एहिबेर एक अगिमुत्तूकेँ
छै लूरि न जकरा लिखबाकेर
आ बजितो अछि तोतराइये कऽ
बजलहुँ- काका! बेसी बाजब नहि ठीक
अहाँकेर ब्लडप्रेशर बड़ ‘‘हाइ’’ भेल,
हम बूझि गेलहुँ जे अपने ई नहि छथि बजैत,
बजइत छनि हिनकर अहंकार
बेकार भेलनि विद्वत्ता आ पाण्डित्य हिनक
छनि भने लिखल साहित्य बहुत
नहि भेटलनि अछि ई पुरस्कार,
तेँ गरियौथिन जा जगभरिकेँ?
साहित्य थिकै स्वान्तः सुखाय,
जँ खूब लिखब साहित्य,
अवश्ये अओतै ओहो बेर, देत मोजर समाज
किछु लीखि छपा कूदब-फानब,
सम्मान किए नहि भेटि रहल
हल्ला चिचिअयलासँ ककरो
नहि दैत छैक मोजर समाज
साहित्य साधना करय पड़ै छै तन-मनसँ।
कवि बाल्मीकि वा कालिदास,
कवि विद्यापति, गोविन्ददास,
कविवर रहीम, मिर्जा गालिब,
वा शरच्चन्द्र, कविगुरु रवीन्द्र,
सब महापुरुष सब पूजनीय,
सब अपन क्षेत्रमे अतुलनीय
आदर्श-पुरुष साहित्य हेतु
सब कहाँ केलनि कहियो चिन्ता?
की हैत लीखि?
के पढ़त हमर साहित्य तथा आदर्शवाद।
बजलहुँ हम काका सुनू बात
छी यद्यपि हम बड़ छोट अहाँक अवस्थासँ
नहि अछि हमरा अधिकार अहाँकेँ बुझयबाक,
धरि एते कहब नहि बेर गेलै अछि बीति
अवश्ये अओतै ओहो बेर
जखन माला पहिरब
सम्मान हैत आ हैत अहँक जयकार
मोन हम पाड़ि देब।
तेँ करू अपन साहित्य सृष्टि
आ भरू ओकर भंडार,
होइछ विद्यासँ पैघ विवेक,
कहब की अपने छी विद्वान,
स्वयं सब बात बुझैत छियैक अहाँ
बजला काका-जीबैत रहऽ,
छह ज्ञान उच्च बौआ तोहर,
आशीष दैत चलला काका,
गुनधुन करैत, चिन्तन करैत,
हम्मर काका, अप्पन काका।