बहुत कुछ भुला देने के बाद भी
मुझे याद आता है
खपरैल का वह पुराना घर
जिसमें सिर्फ एक ही दरवाजा था
और वह, अंदर की तरफ खुलता था
आने वाले आगंतुक आते थे
लम्बे समय तक हृदय में ठहरे रह जाते थे
बाद में एक और दरवाज़ा बनवाया गया
जिसका बाहर की तरफ खुलना
लगभग पूर्व निर्धारित था
आने वाले आगंतुक, आगंतुक की तरह आते
और दूसरे दरवाजे से
बिन ठहराव बाहर की तरफ निकल जाते थे
बची रह जाती थी
उनके पैरों की महज़ कुछ पद्चाप
जो कभी-कभार सुनाई देती थी
कभी-कभार नहीं भी
पर आने वाले आकर चले जाते थे
कभी लौटते नहीं थे
वीरान दिलों की सुधि लेने को भी
बाद में कुछ और दरवाजे बनवाए गए
दीवारों से झांकते छोटे-छोटे झरोखे
बड़ी-बड़ी खिड़कियों में तब्दील होते गए
घर, घर ना रहकर जाने कब
महल और महल से कोठी में बदल गया
उसके चारों तरफ
एक ऊंची सी चहारदीवारी बना दी गई
बाहर एक काले रंग से पुता
काठ का बोर्ड लगा दिया गया
जिस पर बड़े और सफेद अक्षरों में लिखा था
पाल निवास, सी - 13, मुहल्ला खुर्रमपुर
जिस पर हम अक्सर ख़त लिखते रहते थे
और जबाब भी आते रहे
अब भी हम ख़त लिखते हैं
पर अब ज़बाब नहीं आते
और हमें मानना ही पड़ता है कि
सिर्फ इंसान नहीं मरते, घर भी मरते हैं
हमने तो पुराने घरों को कुछ ऐसे ही मरते देखा है।
छोटी-छोटी नफ़रतें
अक्सर इतनी बड़ी क्यूं हो जाती हैं
कि दब जाता है प्रेम
बड़ी ही बारीक विनम्रता से
बिना किसी आवाज़
बिना किसी हलचल
बिन कुछ कहे, बिन कुछ सुनें
संकरी होती जाती हैं
खुली हुईं जगहें
चलती हुईं गलियां
फैला हुआ विस्तृत हृदय
और वह हर एक रास्ता
जहां अक्सर प्रेम चहल-कदमी
कर रहा होता है
रह जाती हैं तो बस
कुछ अधूरी ख्वाईशें
कुछ अधखुली खिड़कियां
कुछ झांकती उनींदी आंखें
और एक बंद दरवाज़ा
जिस पर लिखा होता है
अब अंदर आना मना है
और दहलीज़ पर काट दी जाती है
बची-खुची मगर पूरी की पूरी जिंदगी।