Last modified on 10 जुलाई 2016, at 06:23

पुराना डाकख़ाना / शहनाज़ इमरानी

चौड़ी सड़कों में दबे
पानी के बाँध में समा गए
शहर की तरह एक दिन तुम भी
तमाम मुर्दा चीज़ों में शुमार हो जाओगे

वक़्त की चाबुक से छिल गई है राब्ते की पीठ
कुछ शब्दों को नकार दिया है
कुछ पुराने पड़ गए शब्दों को
मिट्टी में दबा दिया है
उखड़ी सड़क, झाड़-झँखाड़
और अकेले खड़े तुम
रोज़ अन्दर-ही-अन्दर का
ख़ालीपन गहरा होता जाता है

पुराने धूल भरे कार्ड
पत्रिकाएँ, बेनाम चिट्ठियाँ
जाने कहाँ-कहाँ भटकी हैं

कुछ आँखें धुँधला गई होंगी इन्तज़ार में
कुछ आँखों से बहता होगा काजल
कुछ आँखें को आज भी इन्तज़ार है
गुम हुई चिट्ठियों के मिलने का।