किसी रूपककार ने
कभी पुरुष को सिंह कह दिया
तो वह समझने लगा खुद को पुरुषसिंह
फिर खुद को समझा बब्बर शेर
पुरुषसिंह ने देखा स्त्री की ओर
सबसे पहले
सहमी सिकुड़ी चौकन्नी चंचल चितकबरी
गहरी काली आँखों वाली
हिरनी जैसी लगी उसे स्त्री तन्वंगी
उसे देखकर
जाने कितने लड्डई फूटे
पुरुषसिंह के मन में
लेकिन आखेटक सिंह भला
सौन्दर्य देखकर क्या करता
पूजा उसकी ?
वह हिंस्र सिंह
उसको तो केवल नरम माँस की चाह
फिर निर्जन वन में हिरनी की चीख़ती कराह
फिर से देखा पुरुषसिंह ने —
स्त्री को ।
सीधी सादी गाय
सींगें मात्र दिखाने भर को
या खुजलाने को अपनी देह
बन्धी हुई खूँटे-पगहे से
विवश - दुधारू बिल्कुल शाकाहार
पुरुषसिंह ने बदल लिया फिर
अपना मूल स्वभाव
हो गया शाकाहारी
उसे भूख मिटाने से मतलब
फिर-फिर देखा पुरुषसिंह ने —
उस स्त्री को।
अबकी लगी उसे वही
साक्षात् सिंहिनी, ठीक स्वकीया
कुलगोत्रीया, सन्तानवत्सला पर मादा
किन्तु दहाड़ती
लगभग उसके ही पौरुष से जैसे प्लुत
और खटकने लगे उसे रह-रह जब तब
तब स्त्री ने फिर-फिर सोचा
अपने बारे में
पशुओं और जानवरों की उपमा
अपमान लगी उसको अपनी
पुरुष-दृष्टि को अनदेखा कर
बोली पहली बार
सधे स्वरों में —
‘‘मैं मृगी नहीं, मैं गाय नहीं
मैं नहीं सिंहनी या पशुवत् मादा
मैं स्त्री हूँ
और रहूँगी स्त्री जैसी
और दिखूँगी स्त्री जैसी साँगोपाँग
चाहे किसी की आँख फूटे
या फटे कलेजा
या सीने पर लोटे साँप
हम स्त्री हैं तो स्त्री हैं’’
किन्तु सिंह का तमगा बान्धे पुरुषसिंह
आक्रामक ही बना रहा
उसके मुँह में ख़ून लगा था
धीरे-धीरे बन गया वह पूरा नरभक्षी
और कुछेक गोलियाँ खाकर
फिर पिंजरे में क़ैद हो गया
बस, खोखली दहाड़ ही बची उसकी
आँखों का हिंस्र ख़ून
तब लगा बदलने पानी में
अब भी स्त्री
अपनी ही करुणा से उद्विग्न
भूखे-प्यासे पुरुषसिंह को
डाल आती कुछ घास-पात
उसके पिंजरे में
और लौटती भारी क़दमों से
पोंछती हुई आँखें अपनी
इस प्रत्याशा में
कि यह शायद अब मनुष्य बन जाए बेचारा
अपने ही कर्मों का मारा
स्त्री अब केवल स्त्री है
वह नहीं किसी कमज़ोरी की अब पुत्तलिका
वह मनुष्य की मृदुल शक्ति है
— अनुपमेय ।