सहज ही सृष्टि को दृष्टि लागी रहे, सदा सर्वदा भरपूर भर्ता।
धर्म धन काम महि मोक्ष विश्राम सुख, देत प्रभु जाहि तेहि कौन हर्ता॥
कर्म कटिजात भव-सिन्धु सुखि जात कह धरनि यह वात नहिँ काँह मर्ता।
स्वर्ग पाताल महि मण्ड ब्रह्माण्ड जत, कामिनी सकल एक पुरुष कर्त्ता॥1॥