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पुल / आशुतोष दुबे

दो दिनों के बीच है
एक थरथराता पुल
रात का

दो रातो के दरमियाँ है
एक धड़धड़ाता पुल
दिन का

हम बहते हैं रात भर
और तब कहीं आ लगते हैं
दिन के पुल पर

चलते रहते हैं दिन भर
और तब कहीं सुस्ताते हैं
रात के पुल पर

वैसे देखें तो
हम भी एक झूलता हुआ पुल ही हैं
दिन और रात जिस पर
दबे पाँव चलते हैं