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पुल की तरह / संतोष श्रीवास्तव

मेरे आसपास
कुहासे का विस्तार
रात का तीसरा पहर
पलकों पर बोझ-सा
और हर सोच सपनों से लदी
कुहासे के आर पार
कुछ नहीं दीखता
घुटती-सी लगती है सांसे
सांसो में समाते कुहासे के सिवा
कहीं कुछ नहीं
जिसे अपना कह सकूं
मैं सपनों के बोझ तले
पत्ते-सी कांपती
और पत्ते को दबोचता कुहासा
ये मेरे लफ्ज़
अपनी गहराई ...सदका...
और मैं अंधेरे से टूटी
अंधेरे का टुकड़ा
अपनी पराजय को परे ढकेल
कुहासे को भेद
अंधेरे पर बिछुंगी
एक पुल की तरह