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पुश्तैनी खेत / मनोज चौहान

आजीविका कमाने की
जदोजहद में
दूर गाँव में छुट गए हैं
वह पुश्तैनी खेत
जिनमें मिला है पूर्वजों की
कई पीढ़ियों का पसीना
बेशक निगल रही है
उनकी उर्वरता को अब
रासायनिक खाद l

चित्र उभर आते हैं अक्सर
मस्तिष्क के कैनवस पर
खेत की बीड़ पर बैठे
दादा, पिता और कभी चाचा का
मुझे देखना बैलों को हांकते
व हल चलाते हुए
और साथ में समझाना भी
ताकि छूट न जाए इंच भर भी जगह
बिना बिजाई के
और हल का लोहाला फिसलकर कहीं
चुभ न जाए बैलों के पावं में l



बादलों की गर्जना सुन
भारी बारिश से आशंकित हो
समेटना तेजी से
ताज़ा कटी हुई पकी फसल को
ताकि कई महीनों की मेहनत
हो न जाए जाया
और घर के पेडू में आ सकें
पके व सूखे हुए अनाज के दाने l
 
वो महज खेत नहीं हैं
मूल्यों व संस्कारों की पाठशाला के
खुले अध्ययन कक्ष हैं मेरे लिए
सीखे हैं जहाँ अनेक सबक
मेहनत में रत
अपने ही कुटुंब जनों से l


बोझिल हो उठता है मन कभी
दुनियादारी के झमेलों से
तो लौटना चाहता हूँ पुनः
उन्ही के सानिध्य में l
 
उनकी मिट्टी के भराव से
देना चाहता हूँ मजबूती
उन जड़ों को भी
जो समायी हैं मेरे अंतस में
बहुत भीतर तक कहीं l

ये जडें परिचायक हैं
मेरे बजूद की
और बुनियाद हैं उस गहरे
भावनात्मक जुड़ाव की भी
जो खींचता है मुझे
बरबस ही
उन पुश्तैनी खेतों की ओर l

दो विपरीत ध्रुवों के मध्य
घटित होते
किसी प्रबल
चुम्बकीय आकर्षण की तरह l