देते हुए एन.डी.टी.वी. का हवाला,
एक दिन घर पर आई
रेवती नाम की बाला।
प्यारी सी उत्साही कन्या
शहंशाही काठी में स्वनामधन्या।
यानि करुणा-मानवता की
निर्मल नदी,
विचारों में अग्रणी इक्कीसवीं सदी।
नए प्रस्ताव की
झुलाते हुए झोली,
रेवती बोली-
हमारे ‘गुड मार्निंग इंडिया’ में
एक सैक्शन है ‘फ़नीज़’,
आप उसमें जोक्स जैसी
कुछ कविताएं सुनाइए प्लीज़।
कोई सद्भाव से आए घर की दहलीज़
तो मना कैसे कर सकता था
ये नाचीज़।
झट से राज़ी हो गया,
फ़ौरन ‘हां जी’ हो गया।
इस ‘हां जी’ के पीछे थी एक बात और,
प्रणय राय को मानता हूं
भारत में छोटे परदे पर
सूचना-संचार का सिरमौर।
विनम्र, तेजस्वी, शालीन,
संतुलित, त्वरित सधी हुई तत्कालीन
धीर-गम्भीर भाषा,
आंखों में भविष्यत् के लिए
घनघोर आशा।
न बड़बोलापन है न लफ़्फ़ाजी,
इसलिए भी हो गई
मेरी शीघ्र ‘हां जी’।
फिर स्मिता शिबानी के साथ
रखी गई मुलाकात,
हास्य को लेकर हुई
संजीदा बहस-बात।
थोड़ी-थोड़ी हिन्दी, ज़्यादा अंग्रेज़ी,
एक-एक बात मैंने मन में सहेजी।
चमत्कृत सा हतप्रभ सा सुनता रहा,
मेरी बारी आई तो मैंने कहा-
जहां तक मैंने आपकी ज़रूरतें समझी हैं,
उसके अनुरूप मेरे पास
एक चरित्र बौड़म जी हैं।
लक्ष्मण के कॉमन मैन जैसे,
और सुनें तो हसें
सोचें तो रोएं !
शिबानी बोली-
चलिए शूट करते हैं
वक्त क्यों खोएं ?
तो लगभग एक साल से
बौड़म जी अपने विभिन्न रूपों में
छोटे परदे पर आ रहे हैं,
मुझसे एक सम्भ्रांत मज़दूर चेतना से
कविताएं लिखवा रहे हैं।