मैं राख में सने हाथ लिए
अपनी दुखती कमर
जूठे बर्तनों पर झुकाये
सोचती रही, सोचती रही
कि
अबकी बार पूजा में माँ को
क्या चढ़ाऊँगी ?
राख ?
अपनी कमर का शाश्वत दर्द ?
सनातनी दारिद्र्य ?
या फिर विरासत में मिला,
दुर्भाग्यों का अक्षय पात्र?
पर बर्तन घिसते घिसते
पूजा बीत गयी
और मेरी सारी चीजें
फिर मेरे पास ही रह गयीं !