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पूजो मत मुझे / गुलशन मधुर

'या देवी सर्वभूतेषु' आदि-आदि-आदि
या फिर
बर्बरता की अंतिम सीमाओं को
पीछे छोड़ता तुम्हारा इतिहास
शब्दों और व्यवहार के-
सोच और कर्म के
दो अंतिम सिरे-
दो अनिवार्य बना दिए गए विकल्प
पूजा-अर्चना
या बलात्कार
और इन दो धुर छोरों के बीच
और कुछ है ही नहीं मेरे लिए
है तो बस एक अकूल रिक्तता
एक अछोर ख़ालीपन

अगर तुम्हारे पास
यही दो विकल्प हैं आचरण के
तो रहने दो!
रहने दो अर्चना-वंदन
मैंने कब मांगे तुमसे
धूप, दीप और नैवेद्य
कब कहा कि मुझे आराध्य बना दो
तुम्ही ने थोपा मुझ पर
यह वीभत्स आडम्बर
ढोती रही जिसे मैं अब तक
कुछ भीरुता में
कुछ नासमझी में

और झेलती रही तुम्हारी ही
वह करनी भी
जिसमें लम्पटता और बर्बरता की
सारी हदें पार कर दीं तुमने

कौन-सी शराब का अंधा नशा है यह
कि तुम्हें यह तक याद नहीं रहता
कि तुम्हारी ही माँ हूँ मैं
या बेटी हूँ
या बहन
या फिर तुम्हारी 'अर्द्धांगिनी'
जो शब्द कहते हुए
तुम फूले नहीं समाते अपनी महानता पर
थोथे शब्दों की अपनी दानवीरता पर
क्या उतना ही गर्व है तुम्हें
अपने छिछलेपन पर भी

लेकिन बस, बहुत हुआ
नहीं चाहिए मुझे
तुम्हारा खोखला औदार्य
नहीं खेलनी है मुझे तुम्हारे साथ
दोहरे अर्थों वाले शब्दों की यह शतरंज
अपने पास रखो
अपनी खंडित मनस्कता
चाशनी में डुबोया हुआ अपना स्त्रीद्वेष
नहीं लटके रहना है मुझे
तुम्हारे छद्म आचरण के दो धुर छोरों पर
नहीं चाहिए मुझे
तुम्हारा पूजा-अर्चना का दंभ
नहीं सहना है अब तुम्हारा परपीड़न

मुझे चाहिए छल-छंद से परे का
वह निष्कपट विकल्प
जो मेरा अधिकार है
जिससे सदा-सदा से वंचित रखी गई हूँ मैं
मनुष्य हूँ, मनुष्य ही बनकर जीना है मुझे

साथ दे सको तो दो
नहीं तो बिना तुम्हारे साथ के भी
जी सकने का जीवट है मुझ में
अपने इस सहज, सार्थक अस्तित्व को
रूप देते हुए

अपने वजूद के उस अर्थ को
साकार करते हुए
जिसमें न मैं देवी हूँ
न ही ताड़न की, परपीड़न की अधिकारी
मनुष्य हूँ बस
और न ही तुम देवता हो
मनुष्य हो बस, मनुष्य
केवल मनुष्य हैं दोनों
तुम भी, मैं भी