पूज्य कमल जी
क्यों ख़ुद पर इतना इतराते हैं
रंग रूप सब
कीचड़ के शोषण से पाते हैं
इनके कर्मों से घुटती है
बेचारे कीचड़ की साँस
मज़्लूमों के ख़ूँ से बुझती
चमकीले रंगों की प्यास
पर खिल कर ये सदा कीच के बाहर जाते है
कीचड़ से इनके सारे मतलब के नाते हैं
ये ख़ुश रहते वहाँ जहाँ
कीचड़ समझा जाता कुत्सित
देवों के मस्तक पर चढ़कर
इनको दिखते नहीं दलित
बेदर्दी से जब सब मुफ़्लिस कुचले जाते हैं
कष्ट न उनके इनके दिल को छू तक पाते है
फेंक दिये जाते हैं बाहर
ज्यूँ ही मुरझाने लगते
कड़ी धूप में और धूल में
घुट-घुट कर मरने लगते
ऐसे में निर्धन-निर्बल ही गले लगाते हैं
पर इनको निःस्वार्थ भाव कब पिघला पाते हैं