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पूरे चाँद की बातें / ज्योत्स्ना मिश्रा

उस पूरे चाँद की बातें
अगर आज अमावस में
करूँ भी तुमसे
तो भी तुम समझ नहीं पाओगे
इसलिए जाने दो

बस आँखें बंद करो और महसूस करो

सख्त गर्मियों की शाम
उतरते दिन में उतरती
रातरानी की खुशबू
आषाढ़ के हरे रंग में
डूबी हुई एक नदी की
मुस्कराहट
सर्दियों का कोई
नर्म फिसलता-सा लम्हा
जो अभी हाथ में था
अभी छूट गया

मैंने जो गीत लिखा था
कभी सिर्फ़ तुम्हारे लिए
ओस के आखरों में
धूप निकली तो धुंधला हो गया
अब अगर पढ़ाना भी चाहूँ
तो शायद पढ़ न सको
इसलिए जाने दो...

ऐसा करो
साँसों को ज़रा रोक कर
सुनो
सुदूर बांसवनों से आते
हवाओं के सॉनेट
माज़ी के
किसी ताल में कंकड़ फेंको
और देखो
वृत्तों आवृत्तों में गुनगुनाती यादें
और कभी दिल करे तो
हौले से फुसफुसा कर
लेना मेरा नाम
देखना कविता मिलेगी
मैं न भी मिलूँ तो क्या
कविता मिलेगी