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पूर्णता की अभिलाषा में / निवेदिता चक्रवर्ती

पूर्णता की अभिलाषा में,
खंड-खंड टूटते गए

प्राण भी संवेदनाओं से,
बूँद-बूँद रिक्त होता रहा
मचता रहा हाहाकार ,
मोह से निर्लिप्त होता रहा

जीवन के पथ में सारे,
बारी - बारी छूटते गए

ठोस दीवारों के भीतर,
बहुत-सा पानी भरा दिखा
कहीं-कहीं पोखर में,
हमें वो आकाश भी गिरा दिखा

विश्वास की जमापूँजी,
सरे आम वो लूटते गए

तिमिर को भरा गले तक,
कि चुटकी भर उजास मिले
धूमिल रेखाओं के पीछे,
बची हुई इक आस मिले

छल की माटी में,
अलगावों के अंकुर फूटते गए

आँखों की उस बंजर भूमि में,
स्नेह-पुष्प खिला ही नहीं
उस हृदय की तलहटी में,
अनुराग- कण मिला ही नहीं

हमारे क्लांत प्रयास आज,
हमसे ही रूठते गए