लोहे से झल गई सलाखें
पिघल गये घेरे बाँहों के।
परत-दर-परत चढ़ते साये
कपड़ों भर तनी अर्गनी
नाप गई अमरूदी कोण
टूटी मुंडेर टिकी कोहनी
धूप-चाँदनी तो वक्तव्य हुए झूठे
छत की ख़ामोश सभाओं के।
रेंग-रेंग जाती है कातर
फाइलों लदे हाथों पर
रहा सिर्फ़ इंतज़ार बस का
जल डूबे फुटपाथों पर
हर तो हैं कैद कतारों मे
बागी हैं पुरवा के झोंके।