जाती नगरिया, बजरिया, डगरिया, सहत-सहत अपमान रे।
आदिवंशी वीर कोई है दुखहरिया, करे जो जाति-उत्थान रे॥
विद्या-विहीन करत बेगरिया, मुल्की हक हूँ भुलान रे।
धन बिन बने सब हाँड़ की ठठरिया, बिसरा वंश-विज्ञान रे॥
द्विज सारे देखैं अति हीन नजरिया, छीन आत्म-अभिमान रे।
दीन बनाय कीन बेदरिया, मिलत न कहुँ सम्मान रे॥
अब सब करें संगठन सहरिया, छूत-अछूत महान रे।
'हरिहर' तजि अब मोह-निदरिया, हक बंटवाओ समान रे॥