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पृथ्वी की आयु / दिनेश कुमार शुक्ल

मेड़ पर बैठी हुई कुछ ताकती है चील
ज़रा झलकी, झलक दे कर छुप गई
फिर नील गाय बाजरे के खेत में
झुर्रियों से बिंधे झुलसे हाथ
छीलते हैं घास छुप कर

गाय गाभिन है उसी के लिए इतने झुटपुटे में
चौधरी के खेत में चोरी छिपे
छीलती है घास तीन भूखी बेटियों की माँ
आ रही है समय की पदचाप

चोंच में अपनी दबा कर काल सर्प, उड़ गई है चील
उधर धीरे से बदल कर भेस
चंद्रमा में उतर कर पगुरा रही है नील गाय
मारती है डंक बिच्छू घास
झुर्रियों में ही भटक कर खो गया है दंश

आ रही है घास का गठ्ठर उठाये माँ...
शाम के ताज़े अँधेरे में लग रही है साठ की
कठिन पैंतीस साल का आयुष्य ढोती हुई धरती माँ
लग रही है बहुत बूढ़ी
किन्तु कालातीत...