मेरी ज़बान लाचार।
उर पर पत्थर धर मौन सहूँ सब भार,
ओ क्रूर नियति! क्या यही तुझे स्वीकार?
रे यह भीषण संहार
और मैं देखूँ, अपने ही घर में, विस्मय की आँखें फाड़?
मेरी ज़बान लाचार।
वक्र शनि के अवतार!
ओ मेरी गोदी के कलंक!
पथ-भ्रष्ट-पंक!
ओ मूर्तिमान आतंक!
भाई भाई के शोणित से है आज लाल करता अपनी तलवार,
यह कैसी होली, कैसा त्यौहार?
मेरी ज़बान लाचार।
अरे, यह ताण्डव-नर्तन!
यह महाकाल के ताल-ताल पर प्रलय-विवर्तन!
धन्य परिवर्तन!
कहाँ हो तुम? ओ युग के मंत्र, अनघ अघमर्पण!
विश्व के दर्शन!
सत्य शिव सुन्दर के हर्षण!
आज देखो यह दर्पण।
आज मानव की देखो टेक,
ध्वंस ध्रुव एक,
एक से ही को हुए अनेक,
भयंकर भीषण–
सजी अपनी ही फुलवारी पर करते हैं प्रमत्त से हाय!
वज्र-विद्युन्मय वर्षण!
सृष्टि की हार।
मेरी ज़बान लाचार।
कठिन संसार!
ओ स्वार्थ अर्थ के दस्यु! धृष्ट
रे विश्व-विकार!
मेरे सारे पापों के पुंजीभूत
नाश के दूत
उग्र उपहार!
आज तेरा ही युग, तेराही कीर्ति-प्रसार,
सभ्यता कि दुनिया में होता है सत्कर!
आह! व्यभिचार!
मेरी ज़बान लाचार।
मैं मौन सहूँ सब भार?
यह अनाचार, अत्याचारों का तार!
कौन करे उपचार?
मेरी छाती पर मूँग दली जाती है,
गर्दन जड़यंत्रों से कुचली जाती है,
प्रतिफलित हुए हैं मेरे ही उपकार!
अपने ही सुवनों के हाथों यह श्रद्धांजलि!
कुछ फूल नहीं, चढ़ते जलते अंगार!
कब तक, कब तक, दुर्दैव! बोल तो
मौन सहूँ सब भार?
मैं मौन सहूँ यह भार?
मेरी ज़बान लाचार।