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पृथ्वी — 2 / तेजी ग्रोवर

हर जगह बैठकर धीेमे-धीमे दिखती है वह, गुलाबों की
सुगन्धहीन हवाओं में, इच्छाओं के घनेरे में, विस्मृति के
सुदुख में।

कहीं नहीं थी वह, जो मुझमें थी, अग्नि के किसी मत्स्य-बिम्ब
की तरह, नीली धूप की नदियों में।

वह रोती थी पत्तों के झरनों में, उन बयारों में जो दरख़्तों
के अभाव में बहती हैं।

वह धुएँ के वस्त्रों में, हिसाबी आँखों के कारुण्य में, नदियों
के उन ख़्वाबों में रोती थी जिनमें वे नदियों की तरह समुद्र
की ओर भागती हैं।

मेरे कीड़ों के नारंगी में आहत है, मेरे गायकों की आवाज़
में उठ नहीं पाती, मेरे चित्रों में चित्र से पहले ही थकती
है।